पर्यावरण को अगर बचाना है तो गौमाता का आदर करना सीखो
देशीय पशु से प्राप्त होने वाले गौमूत्र और गोबर किसी भी तरह मलिन नहीं है। ये मलिनता को शुद्ध करने वाले साधन हैं। ये पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले नहीं हैं। ये पर्यावरण में व्याप्त कालुष्य का निवारण करते हैं। ये पर्यावरण के मित्र हैं। कूड़ा, व्यर्थ पदार्थ, पत्ते सब्जियों के छिलके आदि पर गोमूत्र को छिड़कने से मच्छर आदि की उत्पति रूक जाती है। वे सब सड़ कर सेन्द्रिय खाद बनते हैं। इस प्रकार की खाद में 1 प्रतिशत और गैस प्लांट की खाद में 2 प्रतिशत नाइट्रोजन रहता है।
प्राचीन काल के वैभव शिखरों पर अधिष्ठित सभ्यता और संस्कृति के वारिस हैं हम। ऐसे हम विदेशी सरकारों के समय में मात्र शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक धरातल पर भी उनके दास बन गये हैं। वास्तव में यह हमारा दुर्भाग्य ही है। विदेशों में जो विदेशियों के अनुकूल है वही हमारे लिए भी अच्छा है समझ बैठे हैं हम। यह एक भ्रम ही है। इसी भ्रम के जाल में फंसे हैं। स्वतंत्रता के बाद यह जाल और सुदृढ हुआ है। हमारी गौ संपत्ति से संबंधित विचारों में तो यह भ्रम निरूपित हो गया है।
दिल्ली जैसे महानगरों में कांक्रीट, सीमेंट, मार्बल जैसी मूल्यवान सामग्री से साफ-सुथरी कॉलोनियां बन गयी हैं। उनमें हर परिवार के पास किसी न किसी प्रकार का मोटर वाहन अवश्य है। उसे रखने के लिए गैटेज भी बहुत से घरों के साथ हैं। पश्चिमी देशों के अनुसरण में अवश्य कुत्ते पालते हैं। लेकिन गौमाता को पालने की व्यवस्था कहीं नहीं है। आश्चर्य की बात है कि कालुष्य को व्याप्त करने वाले वाहन तो सब को चाहिए। कितनी भी गंदगी फैलायें, कुत्ता अवश्य चाहिए। ये ही आधुनिक जीवन के प्रतिमान बन गये हैं। लेकिन गौमाता का आदर करना कोई नहीं चाहता। हमें अपनी सोच बदलनी है। पर्यावरण की रक्षा में समर्थ गायों की सुरक्षा का भार अपनाना चाहिए। उन्नत वर्गों के पास प्रान्तों में गौ संरक्षण की व्यवस्था होती है तो पर्यावरण का कालुष्य अवश्य कम होता है। काबू में रहता है। गोबर पर पड़ी किरणों के प्रवेश से दुष्प्रभाव दूर होता है। इस का निरूपण भी हो चुका है। इसीलिए हमारे घरों के पास ऐसी व्यवस्ता का आयोजन होना जरूरी है। गौमय से लीपा-पोती की व्यवस्था, खास करके घर के प्रांगण में, अधिक लाभकारी सिद्ध होगी।
आजकल एक और वाद प्रतिध्वनित हो रहा है। क्या हर व्यक्ति को और हर परिवार के लिए गौ-पोषण करना संभव है? आज परिवार अलग-अलग हैं। एकल परिवार अधिक हैं। संयुक्त परिवार नहीं के बराबर हैं। सब अपने-अपने कामोंं में व्यस्त हैं। खासकर यह शहरों में ज्यादा हैं। सामूहिक सामाजिक जीवन को आज लगभग भूल गये हैं। आधुनिक जीवन अर्थ प्रधान हैं। पैसा ही परमात्मा हैं। अगर एक परिवार नहीं तो चार परिवार मिलकर दस गायों की पोषण व्यवस्था कर सकते हैं। उससे अच्छा दूध मिल सकता है। दूध के साथ घी, दही आदि प्राप्त होते हैं। इन से अपने-अपने परिवार वालों की तंदुरूस्ती ठीक रख सकते हैं। आनंद पा सकते हैं। इसके साथ-साथ अपने आसपास पश्चिमी देशों में भी सामूहिक जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। लेकिन यहां पर तो हम पड़ोसियों से भी मिलने का प्रयास नहीं करते हैं। इस कारण चोरियां बढ़ रही हैं। हत्याएं और धावा बोलना जैसी घटनाएं आज हर दिन की घटनाएं हो रही हैं।
गायों को पालने वाली जगहों को खासकर कॉलोनियों से दूर रखना आत्महत्या सदृश है। गोबर और गोमूत्र को गो-मल समझने के कारण यह सब हो रहा है। प्रधानत: उजले कपड़े पहनने वालों की यह भावना है। इसीलिए गायों को जनावासों से दूर रखा जा रहा है इसका एक कारण पाश्चात्य प्रभाव हो सकता है। शहरी लोगों को अपनी समर्पित भावना से मुक्त होना है। यह अत्यंत लाभप्रद है। इस दिशा में सोचना आज आवश्यक है।
गोमय और गोमूत्र को सेन्द्रिय खाद के रूप में कीटक नाशिनी के रूप में देखने में विज्ञता है। इस ओर हमें बढऩा है। समझना है कि इस से प्रजा को विषरहित और सुरूचिपूर्ण धान्य और उससे आहार मिलेगा। गांवों में कुछ परिमाण में उपलों का विनियोग होने पर भी अधिक खाद के रूप में उपयोग में है। वैसे तो उपलों के उपयोग से पेड़ों का काटना कम होता है। इनसे वृक्षों की रक्षा और वनों का विस्तार होता है। अधिक संख्या में पेड़ पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक हैं। हमारे देश में चेरापूंजी प्रांत में वर्षा अधिक होती है। वहां पर भी पेड़ों को काटने से वहां के क्षेत्र भी ऊसर क्षेत्र बनते जा रहे हैं। चेरापूंजी प्रान्त का सम्मान आज घटता जा रहा है।
देश में गौशालाओं और गौसदनों की स्थापना के साथ-साथ वृक्षारोपण(पेड़ों को लगाना) का कार्य भी आवश्यक है। देशी गायों की संतति को बढ़ाना है। गोबर के लिए गोचर विस्तार करना है। पेड़ों के विस्तार से”ओजोन’’ में रंध्र नहीं होंगे। ‘ओजोन’ पृथ्वी की रक्षा करता है। ‘ओजोन’ में पडऩे वाले छेदों से आज दुनिया भयभीत है।
‘ग्लोबलाइजेशन’ और स्वेच्छा व्यापार से संबंधित सन 1991 का एक नया विधान हमारे देश में 100 प्रतिशत मांस निर्यात को लक्ष्य में रख कर पशुवध यंत्रों और पशुवध शालाओं को प्रोत्साहित करने की दिशा में है। हम आगे बढ़ रहे हैं। इससे विश्व व्यापार संस्था को कम दामों में मांस मिलता है और वहां के उद्योगों द्वारा उससे अधिक लाभ वे पाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यूरोपीय उद्योग व्यवस्था को यह अधिक बल देने वाला ही होता है। यही हमारी भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंश जीने और काम करने के हक को और ऐसी भावना को ठेस पहुंचाता है। हमारा वाद ‘जिओ और जीने दो’ वाला वाद है। वाणिज्य के शुल्क वसूल करने के संबन्ध में एक समझौता हुआ है। उसके नियमों में 11वां अधिनियम कहता है कि आयात-निर्यातों पर किसी प्रकार की पाबंदियां रखना न्यायोचित नहीं है। सांस्कृतिक, आर्थिक तथा पर्यावरण के संबन्ध में आवश्यक होने पर भी किसी प्रकार की पाबंदी इसके आधीन कोई भी देश कर नहीं सकता। यही उस नियम की परिभाषा है।
केन्द्र और प्रांतीय सरकारों की सरकारी शाखाएं पशु वधशालाओं की स्थापना के लिए सरकारी ग्रांट और अनेक प्रकार की सुविधाएं (आर्थिक भी) प्रदान कर सकती हैं। केन्द्र पर्यावरण शाखा के सन 1996 वर्ष के एक प्रतिवेदन के अनुसार पिछले पांच वर्षों में कम से कम 32,000 पशु वधशालाएं अधिकार-अनाधिकार स्रोतों से निर्मित हुई हैं। उससे पहले अधिकार पूर्वक कानूनन बनी पशु वधशालाएं केवल 3,600 थीं। ये भी अनुमान के अनुसार वास्तव से कम भी हो सकती हैं। सन 1975 के कुल मांस निर्यात 6,195 टन था। लेकिन सन 1995 तक मानी 20 वर्षों में निर्यात 1,37,334 टन तक पहुंच गया। अर्थात 20 गुना बढ़ गया है। गायों और भैंसों के मांस का निर्यात 1975 में 3412 टन था तो 1995 में 1,25,282 यानी 33.7 गुना बढ़ गया। इन सब निर्यातों का मूल्य सन 1975 में 85,17,000 डॉलर था तो सन 1995 में 14,45,50,000 डॉलर का हो गया।
हर वर्ष बढऩे वाली पशु संख्या से अधिक पैमाने में मांस का निर्यात किसकी सूचना देती है? पशु संपत्ति की कम होने की गति को ही सूचित करती है न। सन् 1951 में हर 1000 व्यक्ति के लिए 700 पशु थे तो वही संख्या सन 2001 तक 400 तक घट गयी। ऐसे ही चलेगा तो सन 2011 तक 200 तक घटेगी। उपयोगी जानवरों को निरूपयोगी घोषित कर उन्हें वधशालाओं में भेजना दुखदायक नहीं तो और क्या है? हर वर्ष बंग्लादेश और पाकिस्तान को 20,000 पशु संतति लुका-छुपी रवाना होते हैं।
हमारी देशी पशु जाति को वहां के वातावरण को सहने की क्षमता है। उनमें रोग निरोधक शक्ति के साथ विशेष प्रयोजन, सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य हैं। इसीलिए उनके रक्षण की अत्यंत आवश्यकता है। ये पशु भारत में कृषि के लिए आधारभूत सजीव दोस्त हैं। सेन्द्रिय खाद और शक्ति की स्रोतस्विनियां हैं। मांस और चर्म के निर्यात के द्वारा चलने वाला व्यापार संबंधी वृद्धि अभिवृद्धि नहीं है। वह विनाश के लिए बनाया गया एक मार्ग मात्र है। एक पशु वधशाला से 20 करोड़ रूपये के पशु निर्यात हो रहे हैं तो वहां मारे जाने वाले पशुओं की सहायता से यहां उत्पन्न होने वाली खाद और शक्ति का मूल्य 910 करोड़ रूपये हम खो रहे हैं इस रीति से हम आर्थिक नाश मोल ले रहे हैं। इस कारण भारत में कृषि व्यवस्था का नुकसान होगा और गरीबी बढ़ेगी।
भारत की कृषि व्यवस्था में औद्योगिक विकास से संपन्न देशों से अधिक पशुओं की आवश्यकता है। पशुओं के प्रति दृष्टिकोण में अंतर है। विदेशों में कृषि उत्पत्तियों से ‘डायरी’ और कृषि के लिए उनका पोषण किया जाता है। इनके लिए संकर जाति के पशुओं की सृष्टि देशी पशुओं के लिए एक थपेड़ ही है। सन 1996 में विश्व की आहार-कृषि संबंधी संस्था से एक प्रतिवेदन निकला था। उसके अनुसार भारत में देशीय पशु जातियां अति शीघ्र गति से ओझल हो रही हैं। आंध्र प्रदेश के पुंगनूरू से संबंधित विशिष्ट जाति की संतति लगभग अदृश्यप्राय है। विश्व विख्यात ‘ओंगोलु’ जाति की संतति की स्थिति कुछ इस प्रकार की है। स्वादेशी जाति की गायें आज 32 प्रकार की ही हैं। कृषि कार्य को स्थिरता मिलनी है तो पशुओं और फसल के प्रकारों में पुनर्विकास होना है।
पर्यावरण कालुष्य निवारण के लिए पशुओं की रक्षा और उनका पोषण चाहिए। पशु रक्षण पर ध्यान न दिये जाने के कारण आज नदियां पानी के कालुष्य की चंगुल में आ गईं हैं। शास्त्रज्ञों का कथन है कि आज पशुवध के कारण भूकंप आ रहे हैं और उनसे जीवों का विनाश भी हो रहा है।
गौ संतति की रक्षा से आज भारत की आर्थिक व्यवस्था का विकास जुड़ा हुआ है। मांस और खाल के निर्यात के बदले गौपालन और संरक्षण को संस्थाएं स्वीकार करती हैं तो कितने ही गुणे की आमदनी हो सकती है। उससे पर्यावरण की शुद्धि-समृद्धि संभव है। उसका परिणाम ही जनता के लिए आनंदमय जीवन की प्राप्ति। हमारा दृष्टिकोण हमारी आर्थिक व्यवस्था और संस्कृति के अनुकूल और संपूरक होना चाहिए।
साभार: गोमाता-जगन्माता
प्रो.यद्दनपूडि वेकटरमणराव
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