• Patparganj, Delhi

गौहत्या के अनसुने पहले

गौहत्या के अनसुने पहले

देश में इस समय गौहत्या, गौ-तस्करी और बीफ की चर्चा फिर तेज है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद अवैध बूचडख़ानों पर ताले लटका दिए गए तो वहीं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में भी अवैध बूचडख़ानों के खिलाफ अभियान शुरू किया गया है। दूसरी ओर गुजरात सरकार ने गौहत्या के खिलाफ कानून बना दिया है। हैरानी की बात ये है कि देश में गौहत्या को लेकर कोई स्पष्ट या एक कानून नहीं है। 29 राज्यों में से कुछ में गौहत्या वैध है तो कुछ में अपराध है। संविधान के आर्टिकल 48 में गाय और गोवंश के साथ ही दूसरे पशुओं की हत्या को निषेध बताया गया है। 26 अक्टूबर 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान देश के अलग-अलग राज्यों में गौहत्या को लेकर बने अलग-अलग कानूनों की संवैधानिक वैधता का समर्थन किया था। देश के 29 में से 24 राज्यों में गाय और गोवंश की हत्या को लेकर तरह-तरह के प्रतिबंध और कानून हैं। केरल, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में गौहत्या पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है।

क्या कहता है संविधान

संविधान में राज्यों को यह अधिकार दिया गया है कि वो पशुओं की हत्या और तस्करी से लेकर उनकी देखरेख को लेकर कानून बना सकते हैं। कुछ राज्यों में ऐसी व्यवस्था है कि वो कुछ नियमों के तहत जानवरों को बूचडख़ानों में काटने की छूट देते हैं। जैसे – काटने के योग्य का सर्टिफिकेट, जानवर की उम्र, लिंग और आर्थिक सीमा को देखकर दिया जाता है। संविधान के आर्टिकल 48 के तहत गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाने का फैसला पूरी तरह राज्य पर निर्भर करता है।

मीट एक्सपोर्ट पॉलिसी

भारत की मौजूदा मीट एक्सपोर्ट पॉलिसी के मुताबिक, बीफ (गाय, बछड़े और बैल का मांस) के निर्यात पर पूरी तरह प्रतिबंध है। हड्डियों सहित मांस या भैंसे के कटे हुए शव को निर्यात नहीं किया जा सकता। भैंसों का हड्डी रहित मांस, बकरी, भेड़ और चिडिय़ों का मांस निर्यात किया जा सकता है।

आमतौर पर देखा जा रहा है कि एक राज्य से दूसरे राज्यों में गायों और दूसरे जानवरों को भेजा जा रहा है, जहां मीट की जरूरत या तो कम है या फिर है ही नहीं। कानूनन यह अपराध है क्योंकि एक राज्य से दूसरे राज्य में सिर्फ हत्या के उद्देश्य से जानवरों को ट्रांसपोर्ट नहीं किया जा सकता। चेन्नई और मुंबई में बड़े स्तर पर अवैध बूचडख़ाने चल रहे हैं। साल 2004 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में कुल 3600 वैध बूचडख़ाने थे, जबकि 30000 से ज्यादा अवैध बूचडख़ाने चल रहे थे। उन्हें बंद करने के प्रयास असफल रहे। साल 2013 में अकेले आंध्र प्रदेश में 3100 अवैध और 6 वैध बूचडख़ाने होने की जानकारी मिली थी।

प्राचीन भारत से चली आ रही है ये मान्यता

परंपराओं की बात करें तो प्राचीन समय से ही गायों को धन और समृद्धि का प्रतीक माना जाता रहा है। मध्य युग आते-आते जानवरों की हत्या और बीफ खाने के खिलाफ नियम बनने लगे। पहले के समय गाय सबसे ज्यादा इसलिए पूज्य हो गई थी क्योंकि खेती से लेकर घी-दूध की जरूरतें भी गाय और बैलों से पूरी होती थीं। गायों के गोबर की खाद खेतो को उपजाऊ बनाती थी और दूध-घी की कमी भी नहीं होती थी। यहीं से गाय को माता का दर्जा दिया जाने लगा क्योंकि एक तरह से वह लोगों का पेट भरती थी। बुद्ध ने जानवरों की बलि दिए जाने की परंपरा को गलत बताया जिसे बाद में हिंदुओं ने भी अपना लिया। हिंदुओं के राग को आगे बढ़ाते हुए जैन धर्म के लोगों ने भी गायों की रक्षा में योगदान देना शुरू किया।

आज के समय में जो अहमियत लोगों के लिए सोने और पैसों की है वो पहले गायों और बैलों की होती थी। प्राचीन समय से ही गायों और बैलों को धर्म का प्रतीक मान लिया गया।

मध्यकालीन भारत में आए बदलाव

जिस वक्त भारत में इस्लाम धर्म को मानने वाले शासकों का राज आया तो उन्होंने फिर से गायों की हत्या करना शुरू कर दिया। अरब और तुर्की की तरफ से आने वाले शासकों को भेड़ और बकरी का मांस खाने की आदत थी। वो बीफ खाने के आदी नहीं थे। भारत आने के बाद उन्होंने गायो का मांस खाना शुरू कर दिया। खासकर बकरीद के मौके पर गायों की बलि दी जाने लगी थी। मुगल शासक हुमायूं ने हिंदू इलाकों में गायों का मांस खाने पर रोक लगा दी थी क्योंकि उसकी वजह से सैनिकों में तनाव बढ़ रहा था। बाद नें अकबर, जहांगीर, अहमद शाह ने गौहत्या को लेकर कुछ चुनिंदा प्रतिबंध लगाए।

आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने अपने अधीन राज्यों में 1857 में गौहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने न सिर्फ गायों के कत्ल पर रोक लगाई बल्कि बीफ खाने को भी बैन कर दिया।

इसके बाद मराठा राज में गौहत्या पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। कहा जाता है कि शिवाजी के बड़े बेटे सांभाजी ने 1963 में एक शख्स को गौहत्या के आरोप में मौत की सजा दी थी। मराठा काल में गौहत्या करने वालों को काफी ज्यादा सजाएं हुई थीं।

देश में बना पहला बूचडख़ाना

गाय भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा है। यहां गाय की पूजा की जाती है। यह भारतीय संस्कृति से जुड़ी है। लेकिन देश की संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश हो रही है। इसीलिए देशभर में गौरक्षा दल हैं। गौ-ह्त्या के मामले में अब तक मुसलमानों का ही नाम आता  रहा है। जबकि हदीसों में गाय के मांस को नुकसानदेह बताया गया है। नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सलं)। फरमाते हैं कि ‘अल्लाह ने दुनिया में जो भी बीमारियां उतारी हैं, उनमें से हर एक का इलाज भी दिया है। जो इससे अंजान है, वह अंजान ही रहेगा। गाय के घी से ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक कोई चीज नहीं है -(अब्दुल्लाबि मसूद हयातुल हैवान)।’ कुरआन में कई आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं का जिक्र है। मुगल काल में गाय को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगों का कहीं जिक्र नहीं मिलता। भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेजों ने अहम भूमिका निभाई। अंग्रेजों के भारत आने तक यहां गाय और सुअर की हत्या नहीं की जाती थी। हिंदू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे। अंग्रेजों को इन दोनों ही पशुओं के मांस की जरूरत थी। उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि कुरआन में कहीं भी नहीं लिखा है कि गाय की कुर्बानी हराम है। इसलिए उन्हें गाय की कुर्बानी करनी चाहिए। कुछ मुसलमान उनके झांसे में आ गए। इसी तरह उन्होंने दलित हिंदुओं को सुअर के मांस की बिक्री पर मोटी रकम का झांसा दिया।  रॉबर्ट क्लाइव ने भारत के कलकत्ता (अब कोलकाता) में पहला बूचडख़ाना 1760 में स्थापित किया। यहां रोजाना 30000 जानवर काटे जा सकते थे। इसके बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में बूचडख़ाने खोले गए। 1857 में गायों और सुअर की चर्बी वाली गोलियों के चलन की वजह से सिपाहियों ने बगावत कर दी थी। यूरोप दो हजार बरसों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है। भारत में अपने आगमन के साथ ही अंग्रेजों ने यहां गौ-हत्या शुरू करा दी। 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ-हत्या होने लगी। अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी ने सेना के रसद विभागों के लिए कसाईखाने बनवाए। गौ-हत्या और सुअर हत्या की आड़ में अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डाली। इस दौरान हिंदू संगठनों ने गौ-हत्या के खिलाफ मुहिम छेड़ दी। आखिरकार महारानी विक्टोरिया ने वायसराय लैंस डाउन को पत्र लिखा। महारानी ने इस पत्र में लिखा – ‘हालांकि मुसलमानों की ओर से की जा रही गौ-हत्या पर आंदोलन शुरू हुआ है। पर हकीकत में यह हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा गौ-वध हम कराते हैं। तभी तो हमारे सैनिकों को गौ-मांस मुहैया होता है।

1870 में नामधारी सिख समुदाय ने ब्रिटिश राज के खिलाफ आवाज उठाई और गौवंश की रक्षा की कोशिश शुरू की। जिसके बाद पंजाब, अवध और रोहिलखंड में गायों के कत्ल के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। जिस वक्त देश में आजादी की लड़ाई चरम पर थी, महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय समेत तमाम नेताओं ने स्वराज की स्थापना होने पर गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने का वादा किया। 1927 में महात्मा गांधी ने कहा था कि अंग्रेज रोजाना 30000 गायों का कत्ल करते हैं, मैं गायों की रक्षा के लिए आवाज उठाऊंगा। हालांकि बाद में महात्मा गांधी ने अपने सुर बदले और गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा गौहत्या नहीं होनी चाहिए, यह हिंदुओं की मान्यता है, लेकिन जो हिंदू नहीं हैं उनका भावनाओं का क्या होगा? धार्मिक आधार पर किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद केंद्र सरकार ने 1950 में राज्यों को निर्देश दिया कि गौहत्या पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। तब सरकार ने अपने आदेश में कहा था, ‘गौहत्या पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने से निर्यात पर असर पड़ेगा और जिसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर होगा।’

1954 में वरिष्ठ कांग्रेस नेता सेठ गोविंद दास ने लोकसभा में एक प्रस्ताव रखा जिसमें गौहत्या पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे खारिज कर दिया। नेहरू ने कहा, ‘यह मांग स्वीकार करने से बेहतर होगा कि मैं इस्तीफा दे दूं।’

जब केंद्र सरकार ने बूचडख़ानों को दी सब्सिडी और लोन

1966 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चि_ी लिखकर गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग की लेकिन तब भी ऐसा नहीं हुआ। यही वह वक्त था जब देश में हिंदू संगठनों ने गौहत्या पर बैन लगाने की मांग लेकर आंदोलन शुरू कर दिए। 1995 में सरकार ने देश के विकास और अर्थव्यवस्था का हवाला देते हुए आधुनिक बूचडख़ाने खोलने के लिए सब्सिडी और लोन देने की घोषणा की थी। अक्टूबर-नवम्बर 1966 में गोरक्षा आन्दोलन चला। चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशीलकुमार जी तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे। भारत साधु-समाज, आर्यसमाज, सनातन धर्म, जैन धर्म और सिखों ने आन्दोलन में हिस्सा लिया। सात  नवम्बर 1966 को संसद् पर ऐतिहासिक प्रदर्शन हुआ। देशभर के लाखों लोगों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया था।  इंदिरा गांधी ने  निहत्थे हिंदुओं पर गोलियां चलवा दी थी। सैंकड़ों साधू मारे गए थे। गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने इस्तीफा दिया था। गोली चलाने के खिलाफ शंकराचार्य निरंजनदेव, स्वामी कृपात्री और महात्मा रामचंद्र वीर ने अनशन किया। राजस्थान के महात्मा रामचंद्र वीर का अनशन 166 दिन चला।

सैकड़ों साल पुराने गो-वध बंदी आंदोलन को कोई सरकार दबा नहीं सकती। यह आंदोलन अपनी राख से फिर जिंदा हो जाने के उदाहरण पेश करता रहा है। भले ही इस समय कोई संगठित आंदोलन न हो रहा हो और कोई बड़े नामी संत उसका नेतृत्व न कर रहे हों फिर भी इस आंदोलन की चिंगारी को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह आंदोलन अपनी मंजिल पर ही जाकर रुकेगा। और वह है- पूर्ण गो-वध बंदी।

नीलाभ कृष्ण

 

Please follow and like us:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *