गौ-संवर्धन: समय की मांग
गाय का स्थान हमारे समाज में ऊंचा है। वार्षिक पंचांग में गोपूजा के लिए विशेष पर्व और दिन निर्धारित कर दिए गए हैं। जैसे दीपावली से तीन दिन पहले बछवारस औषधि के देव धन्वन्तरी के साथ, दीपावली से अगले दिन बलिप्रतिपदा-गोवर्धन पर गौपूजन किया जाना निश्चित है। न केवल गौ बल्कि नंदी भी पूजे जाते हैं। जैसे श्रवण मास का अंतिम दिन बैल को सजा कर घर-घर ले जाया जाता है और उसकी पूजला की जाती है। गोदान सबसे पवित्र और महान माना गया है। मकर संक्रांति में गाय और नंदी की विभिन्न रूपों में पूजा अर्चना की जाती है। गोपदम व्रत आषाढ़ ढोकला एकादशी से कार्तिक शुक्ल तक नित्य, गौवत्स द्वादशीव्रत, गोवर्धनपूजा, गौपाष्टमिव्रत, प्रयोव्रत, वैतरणी एकादशी व्रत आदि संस्कार गौपूजा , गोदर्शन, गौदान से ही पूर्ण माने जाते हैं। गोदुग्ध, दधि , धृत, गोमूत्र, पंचगव्य आदि हवन के अटूट अंग माने जाते हैं।
गाय – देवी रूप माता
वेदों और वैदिक काल में गाय को सर्वोच्च उत्पति का पर्याय माना गया। गाय भूमि, गाय देवमाता, गाय मेघ, गाय प्राकृतिक जीवन जल मानी गई। गाय या गौवंश पुरातन काल में विशेष संपत्ति मानी गई। इसके मुकाबले किसी और प्राणी को स्थान नहीं दिया जाता था। एक विशिष्ट अन्वेषण में पाया गया कि जैन सम्प्रदाय ने वृद्ध और असहाय गौवंश के लिए गृह-पिंजरापोल बनाये। नन्द यानी जिसके गौकोष्ट में गायों का समूह हो। यानि एक लाख से अधिक गौवंश हो, कन्या को दुहिता कहा गया।
शिव का वाहन-धर्म का अवतार नंदी
वृषभ ‘संस्कृत शब्द’ बैल के बराबर है। नंदी बैल भगवान शिव का वाहन है। वैदिक साहित्य में शिव शब्द जनता के कल्याण (लोक कल्याण) का पर्याय है और बैल लोक कल्याण करता का वाहक है। हमारी कृषि और ग्रामीण परिवहन हमारे बैलों पर निर्भर रहा है। बैल इस प्रकार हमारे धर्म के अवतार हैं। वस्तुत: बैल मानव जाती का एक भाई है। तीन वर्ष की आयु के बाद बछड़ा, बछिया, और बैल, जो अपने जीवन पर्यंत मानव जाति का कार्य करता है। प्रत्येक शिव मंदिर में हमेशा एक शिव मंदिर की प्रतिमा शिव दरबार में मिल जाएगी। यही नहीं, भारत के राष्ट्रीय चिन्ह में बैल को स्थान दिया गया है। कितने ही सम्प्रदायों जैसे लिंगायत संप्रदाय में नंदीश्वर की आराधना की जाती है।
गौवंश की विभिन्न प्रकार की प्रजातियां
हमारे लिए गाय मूल रूप से हमारे स्वदेशी नस्लों की गाय, जिसमें कुछ निहित दिव्य और प्रमाणित गुण है। 50 से अधिक स्वदेशी नस्लों, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं – गीर, कांकरेज, हरियाणा, नागौरी, अमृतमहल, हल्लीकर, मलावी, निमरी, दाज्ज्ल, अलामहादी, बरगुर, कृष्णवल्ली, लालसिंधी, थारपारकर, गंगातीरी, राठी, ओंगोल, धन्नी, पंवार, खैरीगढ़, मेवाती, डांगी, खिल्लार, बछौर, गोलों, सिरी और कंगायम। ये नस्लें अपने उत्तम दुग्ध, शक्ति और पर्यावरण रक्षक रूप में पूर्ण विश्व में जानी जाती हैं।
आकृति-प्रकृति, गुण -दोष एवं रूपरंग के आधार पर अगर बांटे तो मैसूर की लंबे सींगों वाली अमृत महल, हल्लिकार, कांगयम, खिल्लार, कृष्णवल्ली, बरगुर, आलमवादी, आदि। काठियावाड़ की लंबे कान वाली गीर, देवानी, डांगी, मेवाती, निमाण, आदि।
उत्तरी भारत की चौड़ी मुख तथा मुड़े हुए सींग वाली सफेद रास, कांकरेज, मालवी, नागौरी, थारपारकर, बचौर, पंवार, केनवरिया आदि।
मध्य भारत की संकरे मुख और छोटे सींग वाली भगनारी, गवलाव, हरियाणवी, हांसी-हिसार, अंगोल, राठ आदि साहिवाल, धन्नी, पहाड़ी सीरी, लोहानी, आदि।
ये प्रजातियां अपने दुग्ध क्षमता, गुणवत्ता, शक्ति के लिए विश्व विख्यात है। आज ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, इस्रायल, और यूरोप के कितने ही देशों में इनको अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। गिनीज विश्व रिकॉर्ड में गीर और अनगोल को शामिल किया गया है।
विदेशी प्रवासियों की नजर में गाय
मार्कोपोलो जब भारत आया तो लिखा कि यहां हाथी के समान नंदी जिनकी पीठ पर व्यापारी माल लादकर ले जाया करते हैं वो प्रत्येक नागरिकों के द्वारा पूजा जाता है। उसके गोबर से घरो को लीपा जाता है और उस पर बैठ कर प्रभु की आराधना होती है।
मुगल दरबार का नजदीक से उसने वर्णन किया है कि हिन्दुस्तान में गोवध मनुष्य के वध के समान दंडनीय था। उसने तत्कालीन बादशाहों के भोज्य पदार्थों की सूची दी है जिसमे कहीं भी गौ मांस का उल्लेख नहीं है।
इतालवी यात्री पीटर दिलबरेल ने 1963 में लिखा है कि खम्बात में गौ बछड़ा और बैल मारने की सख्त मनाही थी। कोई मुसलमान भी यदि गोहत्या करता तो उसे मृत्युदंड जैसा कठोर दंड मिलता था।
एक अन्य यूरोपीय टेवेनियर लिखता है कि मुगल काल में व्यापारिक माल ढोने का काम बैलों की सहायता से किया जाता था। उनके पास दक्षिण भारत की अमृतमहल महाराष्ट्र की जैवारी (खिलार) काठियावाड़ की तलवड़ा बुंदेलखंड की गोरना इत्यादि नस्लों के बैल रोज 50 -60 किलोमीटर पीठ पर माल लेकर चलते थे।
कहा जाता है कि विदेशी यात्री भारत से कामधेनु और कल्पतरु यानी गाय और गन्ना लेकर गया था, जिससे यूरोप में समृद्धि बढ़ी और ‘सोने की चिडिय़ा’ भारत लुट गया।
(उदय इंडिया ब्यूरो)
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